Saturday, October 25, 2014

माँ





कुछ पुरानी यादों ने दिल पर दस्तक दिया..

वो उनकी बेचैनी मुझ से दूर जाने की याद आई..

खाने की हिदायत और वो पोटली मे बँधा कलेवा..

इस रेल गाड़ी के सफ़र मे माँ तेरी बड़ी याद आई..


वो तेरी नम आँखे वो तेरी झूठी हसी...

तेरे हाथो मे सीकुडे नोटों की बड़ी याद आई..

पापा से मेरे खर्चे की ज़िद और मेरे भाग के शादी करने का डर...

वो अपनी बहू लाने की ज़िद याद आई...


मेरे सारे गंदे कपड़े धोने की कोशिश..

वो तेरे हाथ के आलू के परांथों की बड़ी याद आई..

वो मेरे बालों मे तेल लगाने की हड़बड़ी..

और मेरे बॉल और छोटे करने की ज़िद याद आई..


वो तेरा मेरे वजन पे फिकर.. ऑफीस वालो के लिए तेरी गाली...

वो छोटी चीनी वाली रोटियों की याद आई..

सुबह तेरे चाय की दस्तक.. और ना उठने पे तेरी डाँट..

वो तेरी घी के हलवे की बड़ी याद आई..



वो तेरा आँचल मे मुझको छुपाना.. वो गालो पे पप्पी..

तेरे पल्लू मे बँधी मिस्री की डाली की बड़ी याद आई..

वो ठंड मे मेरे ना नहाने के ज़िद पे तेरी मार..

फिर बाहों की गर्मी और वो दुलार..

उन थप्पड़ो की बड़ी याद आई..



वो मेरे छुपे आँसुओं को पकड़ना.. और मेरे कम निवालो को समझना..

मेरी हँसी पे तेरी मुस्कान याद आई..

वो जाते जाते मेरे सर पे हाथ फेरना.. और मेरे जेब मे मेवे भरना..

तेरे मेरे लिये बचाए रुपयों की बड़ी याद आई..

इस रेल गाड़ी के सफ़र मे माँ तेरी बड़ी याद आई..

मैं



मैं ऐसा ना होता... अगर तुम ना आती..
तेरी हस्सी से अब होती है सुबह..
तेरे बाहों मे है रात कट जाती..
मैं ऐसा ना होता... अगर तुम ना आती..

बिखरा था मैं पहले.. अब सिमटा हूँ..
लड़खड़ाए से थे कदम.. अब संभाला हूँ..
इन सूनी रातो में.. ये तेरी याद दिल से नही जाती..
शायद मैं ऐसा ना होता... अगर तुम ना आती..

वो तेरा मुझ पर हक जताना ही काफ़ी था..
वो खुद को नये कपड़ो मे दिखाना ही काफ़ी था..
वो तेरी हस्सी मेरे बातो पे हैं जादू कर जाती..
शायद मैं ऐसा ना होता... अगर तुम ना आती..

वो तेरे सपनो को मुझसे जोड़ जाना..
वो मेरे लिए रोज सज के आना..
तेरी बाहों मे हैं मेरी धड़कने खो जाती..
शायद मैं ऐसा ना होता... अगर तुम ना आती..

मैं ऐसा ना होता... अगर तुम ना आती..
मैं ऐसा ना होता... अगर तुम ना आती..

Tuesday, October 14, 2014



मदद



रखा गांव से दूर, उस बीहड़ तहख़ाने मे...
पास बुलाया तब जब थी बदबू उनके गुसलखाने मे..
मजूरी की रोटी भी छिन ली तुमने..
गेंद ही तो छुआ था, वो भी अंजाने मे..


घर के ज़ेवर चढ़े तेरे लाल खाते मे..
जाने कितने महीने हैं कटाई आने मे..
ये मेघ हैं क्यू सूखे सूखे..
भगवान तू भी लगा है आज़माने मे?


कब देखेंगे लल्ले के पीठ पे बस्ता..
वो तो लगा है माई के बोझ उठाने मे..
इसे ले जाओ इस देश से दूर...
देर ना लगेगी अंधेरो मे बिलाने मे..


अब राम भी नही हमारे शायद..
तुम लगे हो उन्हे भी हथियाने मे..

चलो राम नही तो बस दर्शन देदो..
वो नही तो मेरे अर्पण ले लो...
और वो भी नही तो दो बस थोड़ी इज़्ज़त..
कुछ मदद होगी हमारे मुस्कुराने मे..
कुछ मदद होगी मुस्कुराने मे..

(बिलाना=खोना)

Wednesday, May 28, 2014

वक़्त पिघलता रहा... जाने तुम क्या परखते रहे..




वक़्त पिघलता रहा... जाने तुम क्या परखते रहे..
मैं रहा यहीं खड़ा.. जाने तुम कहाँ भटकते रहे..
फैली रही मेरी बाहें.. क्यूँ कोने मे तुम सिसकते रहे..
बस वक़्त पिघलता रहा... जाने तुम क्या परखते रहे..


मैं चलता रहा तेरी तन्हाइयों में.. जाने क्यूँ तुम मुझे झिड़कते रहे..
जो सुखी आधी बची थी रोटी मेरी.. उसे भी तुम बस कूतरते रहे..
बैठा था मैं तेरी ही गली में.. तुम जाने किस गली गुज़रते रहे..
बस वक़्त पिघलता रहा... जाने तुम क्या परखते रहे..


मैं करता रहा तेरे सजदे.. तुम दोस्तो संग हंसते रहे..
लतीफ़े मैंने लिखे तेरे आँखो पे ..तुम काज़ल जाने किसके लिए भरते रहे..
ग़ज़ले गाए मैने तेरे मुस्कान को.. तेरे कान जाने किसको तरसते रहे..
बस वक़्त पिघलता रहा... जाने तुम क्या परखते रहे..

img lacza