Friday, December 30, 2016

Gulabi

वो छोटी रात जाने इतनी बड़ी कैसे हो गयी
जब घड़ी की सुई तेज और धड़कने धीरे चलती थी
तब ओस की बूँदों पे फिसलते थे सपने
और दूर हो कर भी पास थे तुम कितने

तब किलकरियों से तेरे चैन आता था
तेरे आसुओं पे मेरा भी दिल भर आता था
जब तेरे साँस की गर्मी से धड़कने तेज होती थी
और अंगड़ायों पे तेरी सुबह की किरने निकलती थी

आज देखो मेरे बिस्तर को भी शिकायत है
इन उजले तकियों को तेरे ज़ुल्फो की चाहत है
मेरे चादर मुझसे तेरी गर्मी माँग रहे
और ये तौलिए तेरी खुश्बू बखान रहे

है उदास ये दरवाजा.. की अब इनकी ज़रूरत नही
मुझसे पहले तुझे इनकी खबर रही..
पर्दे हैं खोए से की किसी ने इन्हे बदला नही..
सच है इनकी गुलाबी रंग की मुझे कदर नही

आ जाओ मेरे पास कम से कम इनके लिए ही सही..
गर तुम भी हो वहाँ उदास इनके लिए ही सही..
आ जाओ और घुल जाओ मुझमे और करो पूरा सपना..
जहाँ गुआबी पर्दो वाला एक सुंदर सा घर हो अपना..




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